रविवार, 18 नवंबर 2012

मुझे प्यार चाहिए

काम का उन्माद नहीं ,
मन की उद्दंडता नहीं ,
चित्त में चंचलता नहीं ,
निर्मल भावों  से भरा ,
प्यारा सा संसार चाहिए ...

मुझे प्यार चाहिए ........

बंधन न हो अश्रु के ,
नयन न रोके मुझे ,
गरिमा के बंधन से बंधा ,
भविष्य का निर्माण चाहिए ,

मुझे प्यार चाहिए ........    "अमन मिश्र "

रविवार, 11 नवंबर 2012

दीप बनाम बल्ब

सबसे पहले तो आप सभी लोगो को दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाये देना चाहूँगा , सबसे पहले इस लिए क्यों की कहते है ना की नीम की पाती गुड़ के साथ बहुत सरलता से  निगली जाती है।
खैर अपनी बात को कहने के पूर्व थोडा सा इतिहास में जाना चाहूँगा . कहते है की भगवन राम के अयोध्या वापस आने पे वह के नागरिको ने उनका दीपो के प्रकाश के साथ स्वागत किया था , और तब से ये त्यौहार मनाया जा रहा है .  इसके वैज्ञानिक पहलू से भी आप सब का दो चार कराना चाहूँगा , जैसा की सभी जानते है की वर्षा ऋतु में वातावरण में कई कीट पतंगे अपनी संख्या की भरी वृधि कर देते है और कई जीव जैसे मकड़ी , गुजुआ ( काला सा कीड़ा , अब मुझे तो यही नाम पता है ),और भी बहुत से कीड़े अपनी अधिकाधिक उपस्थिति दर्ज कराने लगते है . अब हमारे पूर्वजो को शुक्रिया करना चाहूँगा जो बड़े माइंडेड थे , उन्होंने त्यौहार में ही विज्ञानं को फिट कर दिया , घर की साफ़ सफाई को नियम सा कर दिया , और मिटटी के दियो में सरसों के तेल से दीप जलने का प्रचलन  शुरू  किया ,  होता ये था की दिए की लौ से कई कीड़े आकर्षित होते थे और लौ के कारण वही ख़त्म हो जाते थे , और सरसों के तेल का धुआ वातावरण को शुद्ध करता था . अब आते है हमारे आज में हमने अपने पूर्वजो के दीमाग में अपना दीमाग लगाया और ले आये बिजली के बल्ब , कहे पडोसी अगर एक झालर लगाये तो हम लगायेंगे चार . अब ज़माने ने दीप को आउटडेटिड कर दिया ,और हमारे पूर्वजो की शांत आत्मा हमें भूत सी लगाने लगी . खैर झालर जली , रोशनी तो हुई ,तो  नए ज्ञान ने पुराने विज्ञानं को साइड में कर दिया .. जहा देखो झालर रंग बिरंगी ,  दीप बेचारा बस रस्म अदायगी का प्रतीक अपने अस्तित्व को खोजता हुआ ,वो तो गनीमत थी की अभी भगवन बचे थे , उनको भी थोडा डर हुआ होगा की कही हमारी आरती दीपक की जगह बल्ब से न होने लगे .खैर झालर मुस्कुरा रही थी और दीप सोच रहा था की मनुष्य को दिमागी प्राणी कहा जाता है पैर आज इनकी अक्ल क्या घास खाने गयी है . खैर अब  एक उम्मीद बंधी है , शुक्रिया कहना चाहूँगा अपने गुरुवर का और उनके जैसे कई लोगो का जो फिर से प्राचीन विज्ञानं को स्थापित करने में जुटे है ... और इसी आशा के साथ की आप सभी दीप को झालर से ज्यादा उपयोग करेंगे।
 एक कविता कहना चाहूँगा    .
                         उम्मीदों की रोशनी कभी बुझने न देना .
                         सूखे हुए पेड़ो पर भी बहारे आती है .

                                                                                                    "अमन मिश्र "









सोमवार, 5 नवंबर 2012

ऐ प्रेम तुम हो क्या ?

ऐ प्रेम तुम हो क्या?

समर्पण का नाम ,

या निर्मल सा एक भाव ?

किसी ने पाया तुम्हे उजाले में,

किसी ने अंधेरो में पाया,

कोई कहता है की सुख हो तुम ,

कोई कहे दुःख की छाया .

ऐ प्रेम तुम हो क्या?

एक सरसराहट से ,

एक झनझनाहट से ,

मीठी सी बोली से ,

चुभते से बाणों से .

एक एहसास हो ,

जो अनकहा है ,

या पन्ना जिंदगी का ,

जो अनछुआ है .

ऐ प्रेम तुम हो क्या ?

कोई त्याग में देखता है तुम्हे ,

कोई ममता में मानता है ,

किसी के लिए शांति हो तुम ,

कोई युद्ध से जानता है .

दिव्यता की मूरत हो ,

या सुन्दर सा ख्वाब हो .

ऐ प्रेम तुम हो क्या?

ऐ प्रेम तुम हो क्या?

"अमन मिश्र "

रातों रात पेड़ काट दिए, जंगल जला दिए। हम सोए रहे, नदिया सूखा दिए। वो चिड़िया अब रोती है, घोसले गवा दिए, कुछ आंखो में पानी लाओ, जो बोतल...